भगवान राम और माता सती की परीक्षा । रामायण 3/38

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स्वामी मुकुंदानंद इस प्रसंग में बताते हैं कि भक्ति में संदेह विनाशकारी परिणाम ला सकता है। संदेह एक ऐसा रोग है जो आस्था के स्तंभ को दीमक की तरह खोखला कर देता है। यह हमें भक्ति में मीलों पीछे धकेल देता है। स्वामीजी इसे एक सुंदर उदाहरण से समझाते हैं—जब भगवान शिव और माता पार्वती (अपने पहले अवतार में माता सती) ने वन में भगवान श्रीराम को देखा, तो भगवान शिव ने श्रद्धा से शीश नवाया, लेकिन माता पार्वती उन्हें दुखी अवस्था में देखकर चकित हो गईं। उन्होंने मन में विचार किया कि जो भगवान श्रीराम ज्ञान के भंडार हैं, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी हैं, क्या वे अपनी पत्नी की खोज में एक अज्ञानी मनुष्य की तरह भटक सकते हैं? उन्हें संदेह हुआ—यदि वे भगवान हैं तो इस तरह विह्वल और विचलित क्यों हैं? यदि वे ‘सच्चिदानंद’ हैं, तो फिर शोक क्यों कर रहे हैं? उनका मन अनगिनत संदेहों से भर गया। भगवान शिव ने उन्हें पहले ही सचेत किया, लेकिन उनके मन में संदेह का बीज अंकुरित हो चुका था और उन्होंने भगवान श्रीराम की परीक्षा लेने का निश्चय किया। संदेह के परिणाम क्या हुए, यह जानने के लिए पूरी चर्चा सुनें।
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