जब संशय ने माता सती को शंकर जी से दूर कर दिया । रामायण 4/38

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इस प्रसंग में स्वामी मुकुंदानंद जी माता सती के त्याग और दक्ष के यज्ञ की कथा का वर्णन करते हैं। जब मन मोह में पड़ जाता है, तब भगवान द्वारा कहे गए सनातन सत्य भी मन को स्वीकार नहीं होते। माता सती के मन में यह गहरी शंका उत्पन्न हुई कि क्या वास्तव में भगवान श्रीराम ही परम सत्य और परमेश्वर हैं? इस संदेह के कारण उन्होंने उनकी परीक्षा लेने का निश्चय किया। जब भगवान शिव ने उनसे पूछा कि उन्होंने श्रीराम की परीक्षा कैसे ली, तो माता सती ने कहा कि उन्होंने कोई परीक्षा नहीं ली, बल्कि केवल श्रद्धा से प्रणाम किया। लेकिन भगवान शिव ने ध्यान में सत्य का साक्षात्कार किया और जाना कि माता सती ने स्वयं को सीता का रूप देकर श्रीराम की परीक्षा ली थी। यह जानकर भगवान शिव ने उन्हें अपने हृदय से त्याग दिया। इस निर्णय से माता सती का मन अव्यक्त पीड़ा से भर गया। इसके बाद, प्रजापति दक्ष (माता सती के पिता) ने एक भव्य यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें सभी ऋषियों और देवताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन उन्होंने जानबूझकर भगवान शिव और माता सती को आमंत्रित नहीं किया। जब माता सती ने अपने पिता के घर जाने की इच्छा जताई, तो भगवान शिव ने उन्हें समझाया कि बिना बुलाए जाना उचित नहीं होगा। उन्होंने अनेक तर्क देकर माता सती को चेताया, लेकिन सती ने सोचा कि जो ईश्वर ने पहले से तय किया है, वही होकर रहेगा। जब माता सती अपने पिता के घर पहुँचीं, तो केवल उनकी माता ने उनका स्वागत किया, लेकिन अन्य किसी ने उनसे सम्मानपूर्वक व्यवहार नहीं किया। जब उन्होंने देखा कि यज्ञ में भगवान शिव के लिए कोई स्थान नहीं रखा गया है, तो उनका हृदय क्रोध और अपमान से जल उठा। इस घोर अपमान को सहन न कर पाने के कारण उन्होंने स्वयं को यज्ञ की अग्नि में समर्पित कर दिया। पूरी कथा सुनें और जानें कि माता सती के बलिदान के बाद वीरभद्र ने यज्ञ में कैसी प्रलयकारी लीला रची।
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